Friday, March 11, 2011

(तुम समझॊ) मॆरॆ जज़्बात

प्रस्तुति: अंकुर शुक्ला

क्यॊ इन्सा होकर रोते हो

इंसानी फितरत को समझो

क्यॊ पाकर सबकुछ खोते हो

इसको नादानी मत समझो



कुछ पाकर खोना भी फन है

कुछ खोकर पाना एक सपना

तुम सपनो को साकार करो

अपने को कमतर मत समझो



इस आशा और निराशा मॆ

है क्या? खॊया है क्या? पाया

मैनॆ तॊ फिर भी कुछ खॊया

तुमनॆ क्या पाया तुम् समझॊ??



वह इन्सा ही कैसा इन्सा

जिसके दिल मे अरमान न हो

अरमान जो पूरे ना हो तो

तन्हा अपने को मत समझो



जब वक़्त दगा दॆ जाता है

हमराज़ यॆ गम हॊ जाता है

अपना तॊ गमॊ सॆ नाता है

इसॆ दॊस्त पुराना तुम समझॊ



कोई वक़्त का मारा बेचारा

कोई वक़्त पकड़कर चलता है

कम्बख़्त ये इन्सा क्या जाने

फितरत जो बदलता रहता है

1 comment:

  1. अरे वाह बहुत बहुत अच्छा लिखते है आप तो ये आपकी कविताये है ..शिशिर शुक्ला 09899147504

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