Saturday, February 12, 2011

धुंधला हुआ समाज का आइना


अंकुर शुक्ला

किसी विद्वान ने कहा है"काजर की कोठरी में कैसो भी सयानो जाए, एक सींक काजर की लागी पय लागी है"

बदलाव का दौर बदस्तूर जारी है.समाज की संरचना, लोगो की जीवन शैली और सोच में बदलाव देखे जा सकते हैं. आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमे परिवर्तन नहीं हुआ हो.मीडिया जगत भी इससे अछूता नहीं है.संचार क्षेत्र में आई क्रान्ति की वजह से देश-विदेश की तमाम खबरें पलक झपकते ही लोगों तक पहुच रही है .ऐसे तमाम परिवर्तनों को सकारात्मक नज़रिए से देखा जाना चाहिए लेकिन इन परिवर्तनों के कुछ दुस्परिणाम भी सामने आ रहे हैं.


समाज का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ अपनी जिम्मेदारियों से किनारा कर आज सफल व्यवसाय का रूप ले चुका है.जिसमे समाज को जागृत करने और नई दिशा देने की सोंच कम और लाभ कमाने की इच्छा ज्यादा नजऱ आती है.ऐसे में अपने मूल सिद्धांतों से विमुख हमारे समाज का आइना अपनी पारदर्शिता खो चुका है.जहां एक ओर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए खबरों से ज्यादा महत्व टी.आर.पी.बनाए रखना है और महत्वपूर्ण चुनौती भी.वहीं दूसरी तरफ समाचार पत्र पाठकों को अधिक-से-अधिक आकर्षित करने की होड़ में नए अनुसंधानों के नाम पर सैधांतिक परिवर्तनों को जायज मान रहे हैं.

चाहे न्यूज़ चैनल हो या समाचारपत्र इनके लिए खबरें वही सुर्ख होती है जिससे सनसनी कायम किया जा सके.ऐसे खबरों का समाज पर चाहे जैसा भी असर हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

परिणामस्वरूप हत्या,बलात्कार,अपहरण जैसी आपराधिक घटनाओं को प्रमुखता दी जाने लगा है. कज़ऱ् से बेहाल किसी किसान का आत्महत्या करना,सरकारी तंत्र की उपेक्षा से प्रभावित किसी शहीद सैनिक की विधवा और उसके परिवार की बदतर हालात में होने जैसी खबरों को या तो उचित स्थान नहीं मिलाता है और अगर मिलाता भी है तो बामुश्किल चंद मिनटों का समय या अखबार के किसी कोने का एक कालम.


आज समाज का हर आदमी यह जानता है कि अगर मीडिया को आकर्षित करना है तो आयोजनों या प्रदर्शनों में ग्लैमर या किसी प्रसिद्द व्यक्तित्व कि उपस्थिति का तड़का लगाना एक आसान तरीका है.


आश्चर्य की बात यह है की लोगों की सोंच में काफी दम है और यह धारण भी कि

आज की मीडिया आम आदमी से ज्यादा ख़ास लोगों को तवज्जो देती है.


यह स्थिति मीडिया और आम आदमी के बीच एक अप्रत्याशित अलगाव पैदा कर रहा है.जिससे आम आदमी के बीच मिडिया की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है. जो सामाजिक दृष्टिकोण से हितकर नहीं है.

पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने राजधानी की अलग -अलग जगहों पर नुक्कड़ नाटक, हस्ताक्षर अभियान, शांति मोर्चा जैसे माध्यमो से भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति अभियान चलाया था. जिसका कवरेज केवल दूरदर्शन ने किया और दूसरे न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों ने इस खबर को स्थान देना जरूरी नहीं समझा.लेकिन आमिर खान के भतीजे की शादी में शाहरूख खान देर से क्यों आये? क्या देरी की वजह सलमान खान थे ? जैसी आधारहीन खबरों को समय देना ज्यादा सही समझा.जो वर्त्तमान में मीडिया के गैरजिम्मेदाराना रवैये और टी.आर.पी. की भूख को स्पष्ट करता है. टी.आर.पी. व्यवसाइक दृष्टिकोण से जरूरी है लेकिन ऐसे में अपने मूल कर्तव्यों से विमुख होना कहाँ तक उचित है?

समाज का बदलता स्वरुप और लोगों की सोंच में हो रहा परिवर्तन इस बात की ओर इशारा करता है कि आने वाले वक़्त में मीडिया पर सामाजिक जिम्मेदारियों का बोझ और भी बढेगा और इसके साथ लोगों की आशाएं भी.लेकिन जिस तरह समाज के आईने पर वैश्वीकरण रुपी धूल की परत जम चुकी है.उसे साफ कर वापस चमक लाना एक बड़ी चुनौती होगी.वरना कही इस चौथे स्तम्भ का हाल भारतीय राजनीति के जैसी न हो जाये.जिसमे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के कुछ और जैसी होकर रह गई है.

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