Saturday, February 5, 2011

अपनी भूमि पर लोकप्रियता के लिए संघर्षशील “भारतीय शास्त्रीय संगीत”(भाग-१)


Presented by : ANKUR SHUKLA

विश्व मानष पटल पर हिन्दुस्तान अपनी बहुआयामी सांस्कृतिक विविधता,धर्मनिरपेक्षता,नम्यता और अनम्यता के अनोखे समिश्रण एवं अपनी कला और प्रतिभाओं के लिए प्रसिद्द है.आज संपूर्ण विश्व भारतीय प्रतिभाओं एवं भारतीय कला का कायल बन चुका है. विज्ञान,दर्शन,संचार,वाणिज्य,व्यवसाय,सूचना एवं तकनीकी क्षेत्रों में हिन्दुस्तान अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित कर चुका है.

भूमंडलीकरण एवं वैश्वीकरण के प्रभाव से वर्तमान दौड़ में अन्य देशों की तरह भारत प्रभावित हुआ है. जिसके परिणामस्वरुप भारतीय संस्कृति और उससे जुडी जीवनशैली काफी हद तक प्रभावित हुई है.अनेक क्षेत्रों में व्यापक रूप से इसके सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं साथ ही सIथ कई देशों को अपने कुछ क्षेत्रों में व्यापक बदलाव की वजह से इसके दुष्परिणामों से भी रू-ब-रू होना पर रहा है.

भारत में संगीतनृत्य,गायन-वादन की ललित कलाओं के रूप में अपनी एक विशिष्ठ पहचान है.विद्वानों के मतानुसार यह राष्ट्र ‘विश्वस्तर’ पर इन कलाओं प्रतिनिधित्व आदि काल से करता आ रहा है. संगीत को हमारे देश में ‘शास्त्र’ के रूप में जाना जाता है. कलाकारों द्वारा अपने कल्पनाशीलता के माध्यम से हिन्दुस्तानी संगीत का प्रस्तुतीकरण मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है.जानने योग्य बात यह है कि, भारतीय शास्त्रीय संगीत ही एक मात्र ऐसी संगीत है, जिसका आधार कलाकार की कल्पनाशीलता पर निर्भर करता है.विश्व में उपलब्ध अन्य संगीत शैलियाँ एवं उनके प्रस्तुतीकरण का आधार प्रदर्शन से पहले तय किया जाता है.

मगर, “दुःख की बात यह है कि, आज भारतीय शास्त्रीय संगीत हमारे बीच दिन-प्रतिदिन अपनी लोकप्रियता खोती जा रही है.आधुनिक जीवन शैली एवं अन्य देशों कि चकाचौध भरी संस्कृतियों और तरीकों को अपनाने के होड़ में इस विश्व प्रसिद्द कला को समय देने वाले अब नाम मात्र लोग ही सक्रीय दिखते हैं”.हालाँकि,भारतीय शास्त्रीय संगीत के कुछ प्रतिनिधि कलाकार आदि इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं.मगर, यह कहा जाए कि यह सांस्कृतिक धरोहर अपने संकटकालीन दौड़ से गुज़र रही है तो,शायद यह गलत नही होगा. गंभीर सांस्कृतिक संकट से जूझती हमारी यह ललित कला खासकर युवा वर्ग कि उपेक्षा से ग्रस्त है.

गौरतलब है कि, इस सांस्कृतिक धरोहर को संकटकालीन स्थिति से उबारने के लिए देश कि कई स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर अनेक प्रयास किये जा रहे हैं, लेकिन इन प्रयासों से कोई सकारात्मक परिणाम सामने आता हुआ नही दिख रहा है.

जहां एकतरफ हमारे ही देश में हमारी यह सांस्कृतिक विरासत लोकप्रियता के लिए संघर्ष कर रही है, वही विदेशों में हमारी यह अन्मूल कला काफी लोकप्रिय और कर्णप्रिय है.परिणामस्वरूप देश के प्रसिद्द कलाकार उचित मंच के आभाव में अन्य देशों कि ओर बसने को मजबूर हैं.अगर संगीत के विद्यार्थियों के दृष्टिकोण से देखें तो इस विषय में ‘मानक-उपाधि’ प्राप्त छात्र एवं छात्राए रोज़गार के लिए तरश रहे हैं. कुछ प्रतिभाशील कलाकार दिन-प्रतिदिन होती उपेक्षा ओर उचित मंच के आभाव में बदहाली ओर संकटग्रस्त जीवन जीने को या फिर,जीविकोपार्जन हेतु किसी अन्य साधन को अपनाने के लिए मजबूर हैं.

सवाल यह है कि,’ऐसी परिस्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है’ ?
सरकार,कलाकार,अध्यापक या स्वयं हम?देखा जाये तो, इस मामले में सरकार की उदासीनता भी इस गंभीर सांस्कृतिक संकट को बढ़ावा दे रही है जिसके परिणामस्वरूप,केवल यह ललित कला ही नही बल्कि,कई राष्ट्रिय गौरव से जुडी हुई सांस्कृतिक विरासत खतरे में है.वर्तमान में चल रहा ‘हॉकी(राष्ट्रिय खेल) विवाद’ इसका जीवंत उदहारण है.

अक्सर,कलाकार (प्रसिद्द कलाकार) इस बात को लेकर सरकार से असंतुष्ट रहते हैं कि,ललित कलाओं कि बेहतरी के लिए सरकार के द्वारा कोई सहयोग प्राप्त नही होता है.इसके प्रदर्शन हेतु राष्ट्रीय चॅनल पर जो समय निर्धारित किया गया है,उस वक़्त अधिकांश लोग सो गए होते हैं. इन कार्यक्रमों के प्रसारण हेतु जो समय निर्धारित है वह या तो मध्य रात्री में है या फिर! प्रातः काल में.

अब भला दिनभर के व्यस्ततम एवं आपा-धापी भरे जीवन में भला कौन दर्शक होगा जो,इन कार्यक्रमों को देखने या सुनने केलिए आराम से समझौता करेगा!! ऐसे समय निर्धारण से इन मामलों में भारत सरकार कि लापरवाही एवं उदासीनता को स्वयं ही समझा जा सकता है.

अगर शिक्षा के दृष्टिकोण से देखा जाये तो देश भर के गिने-चुने स्तर के कुछ विश्वविद्यालयों में ही संगीत एवं अन्य ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती है,जिन में से अधिकांश विश्वविद्यालयों द्वारा इन विषयों में रोज़गार देना तो दूर की बात है,ऐसे विश्वविद्यालय प्रतिभाशाली कलाकारों के निर्माण में भी अक्षम साबित हो रहे हैं.इन विषयों से जुड़े विद्यार्थी केवल अपनी ‘डिग्री की पिपासा’को शांत करने के लिए इस उम्मीद के कारण प्रवेश लेते हैं कि,इन विषयों से सम्बंधित ‘उपाधि’ होने पर अगर भाग्य ने साथ तो इन्हें व्याख्याता या आखरी उम्मीद के रूप में संगीत शिक्षक बनने का मौका मिल जाएगा.

अन्य क्षेत्रों कि अपेक्षा इन क्षेत्रों आज भी रोज़गार का आभाव है.यह बात अलग है कि जितनी मेहनत विद्यार्थियों को वैज्ञानिक,डॉक्टर,इंजीनियर बनने में करनी होती है, संगीत और ललित कलाओं में भी उतनी ही मेहनत कि जरूरत होती है, या शायद अन्य क्षेत्रों से कही अधिक!! इस लिए ललित कलाओं के क्षेत्र में रोज़गार कि सम्भावना कम होने कि वजह से भला!कौन सा पिता या अभिभावक यह चाहेगा कि उसकी संतान इन क्षेत्रों को अपनाए??
किसी भी विषय कि अच्छी शिक्षा उस विषय के अध्यापक कि ‘विषय-विशेष’ में उसकी निपुणता और उस विषय में उसकी कुशलता पर निर्भर करता है.अनेक संगीत के विद्वानों और प्रसिद्द मंच कलाकारों कि माने तो “एक कलाकार को मंच प्रशिक्षण देने के लिए अद्यापक का स्वयं एक कुशल मंच कलाकार होना आवश्यक होता है”तभी अद्यापक अपने शिष्य को सफल मंच कलाकार बना सकता है.

सोंचने कि बात यह है, कि “अगर अद्यापक स्वयं कला-प्रदर्शन में सक्षम नही है तो,वह किसी विद्यार्थी से मंच-प्रदर्शन योग्य भला कैसे बना सकता है??और संगीत जैसे व्यवहारिक और प्रदर्शन आधारित विषय में वह विद्यार्थी सफलता कैसे प्राप्त करेंगे? अब वही विद्यार्थी अपनी उपाधि के बल पर शिक्षण कार्य करते हुए क्या विद्यार्थियों को संगीत कि उचित शिक्षा देने में सक्षम हो सकते है”? यह अपने आप में एक गंभीर प्रश्न है! ‘विश्वविद्यालयों में ऐसे कितने अद्यापक हैं जो स्वयं मंच एवं कला-प्रदर्शन में सक्षम हैं?इनकी संख्या का स्वयं ही अनुमान लगा लीजिये’!
To be continued............................

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