Wednesday, January 26, 2011

साम्यवादी कम्बल ओढे पूंजीवादी घी पीता चीन



अंकुर शुक्ला,


क्या चीन की अर्थव्यवस्था को शक्तिशाली बनाने में अमेरिका की विशेष भूमिका रही है ? अगर हम आकडों की बात करें तो हकीकत कुछ ऐसी ही है की चीन अपनी व्यापार नीति के प्रभाव से ही अमेरिका को कर्जदार बनाने में सफल रहा है। इसके अलावा, चीन अमेरिकी सरकार के ब्रांडों (८०१.५ बिलियन डॉलर)का विश्व स्तर पर सबसे बडा खरीददार भी है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चीन इन ब्रांडों को यदि खुले बाजार में बेच दें तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है।

यह हकीकत है। वर्ष १९८४ से १९९२ के दौरान चीनी अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी निवेश के कारण १९८५ में कुल ३.९ अरब अमेरिकी डॉलर का विनिवेश हुआ,जो १९९२ में बढकर ३७.८ था। १९९३ से वर्ष २००० तक यह रकम बढ कर ५० अरब डॉलर की सीमा तक पहुंच गई थी।

वर्ष २००४ में चीन के सकल राष्टï्रीय उत्पाद में विदेशी पूंजीनिवेश बढकर ३० फीसदी हो गई, जिसमें वर्ष २००७ तक कुल २४ फीसदी गिरावट दर्ज की गई थी। इस दौरान चीन ने अपनी वस्तुओं के निर्यात में खूब बढोतरी की। बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चीन ने अमेरिका एवं यूरोपीय संघ की कं पनियों को आक र्षित किया। साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया पडोसी देशों से कच्चा माल लेकर, उससे तैयार विभिन्न उत्पादों को अमेरिका एवं यूरोपिय संघ को निर्यात कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया। देखते-ही-देखते चीन की अर्थव्यवस्था मजबूत होती गई और अमेरिका उसकी आर्थिक नीति का कायल बन गया।

अगर वर्ष २००९ के अंतिम महिनों पर ध्यान दें तो अमेरिकी घाटा ९.२ से बढकर लगभग १० प्रतिशत तक पहुंच गया था। इस समय अमेरिका पर चीन का लगभग २२.१ बिलियन डॉलर कर्ज है, जिसके भुगतान के मामले में अमेरिका बहुत पीछे है। आपसी क्रय-विक्रय के मामलों में भी अमेरिका चीन पर अधिक निर्भर हो गया है।

यूआन (चीनी मुद्रा) का डॉलर के मुकाबले बराबरी में आना भी अमेरिका के लिए बडी चिंता का विषय है क्योंकि, चीन के द्वारा इसका अवमूल्यन नहीं किये जाने से अमेरिका बडे पैमाने पर नुकसान उठाने को बाध्य है। ज्ञात हो कि अगर, चीन डॉलर की बराबरी करे तो इससे अमेरिकी निर्यात को मजबूती मिलेगी।

वर्ष २००९ में अमेरिकी राष्टï्रपति बराक ओबामा की चीन यात्रा के दौरान दिए गए कुछ अप्रत्याशित बयान अमेरिकी विवशता की ओर बरबस ही ध्यान आकर्षित करता है। यात्रा के दौरान जारी साझा बयान में ओबामा ने कहा था ’अमेरिका और चीन मिलकर दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता के लिए प्रतिबद्घ है’ जिसपर भारत द्वारा औपचारिक तौर पर कडी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई थी और बाद में दोनों देशों को इस बयान के लिए स्पष्टीïकरण भी देना पडा था।

दोनों महाशक्तियों के बीच तमाम मुद्दों पर मतभेद जग जाहिर है। जिनमें ताईवान, मानवाधिकार, व्यापार-घाटा, मुद्रा एवं तिब्बत आदि मसले शामिल हैं।


अपने बयान में पहली बार अमेरिका ने ताइ्रवान जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर चुप्पी साध ली। इसके अलावा अमेरिकी राष्टï्रपति ने इस यात्रा यसे पहले चीन के दबाव और विरोध की वजह से तिब्बती धर्मगुरू दलाईलामा से मुलाकात नहीं की, सिर्फ भरोसा जताया कि धर्मगुरू के प्रतिनिधियों को मिलने का शीघ्र ही अवसर मिलेगा जसे प्रत्यक्ष रूप से अमेरिकी मजबूरी को दर्शाता है।

अमेरिका लम्बे अर्से से व्यापक स्तर पर चीन के खिलाफ मानवाधिकार हनन का आरोप लगाता रहा है लेकिन, यात्रा के दौरान ओबामा ने ऐसे आरोपों का पूरी खंडन करते हुए न केवल अर्थनीति को प्रमुख स्थान दिया बल्कि मुद्रा-विवाद आदि मतभेदों पर भी बोलने से बचते हुए पाए गए। यह इस बात की ओर स्पष्टï इशारा करता है कि मौजूदा समय में परिस्थििति की गंभीरता को समझते हुए दोनो महाशक्तियां एक-दूसरे के पूरक बनने को विवश हैं। जहां तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का प्रश्न है अगर इसी प्रकार इसका दीवाला निकलता रहा तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पछाड कर चीन विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था बनकर उभरेगी और यह परिवर्तन विश्यस्तरिय बदलाव के रूप में जाना जाएगा।


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